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20:20, 21 मार्च 2010 [[झरना रंग और सपने]]
<poem>सांझ लाल चुनरिया लहरा रही है
अब वह काली ओढनी ओढ़ेगी
सुबह पहन लेगी उजाला
सजना चाहती है वह चटक रंगों से
पृथ्वी सद्यः प्रसूता है
उसका ह्रदय द्रवित है संतान के लिए
संतान कि भूख उससे देखि नहीं जाती
सदा रहना चाहती है वह वत्सला
बहने कि आकांक्षा ही नदी है
नदी के पास सिर्फ मीठा पानी है
उसे पसंद नहीं सूखी धरती
वह भरना चाहती है गन्ने, गेहूं की बाली
और मकई के दाने में मिठास
स्त्री की आँख के भीतर झरना है
यह संसार सूखने से बचा हुआ है
स्त्री का ह्रदय रंगों से भरा है
दुनिया में चटक रंग बिखरे हैं
जीवन एक उत्सव है क्योंकि
माँ प्रेयसी और बेटी के रूप में
स्त्री है इस पृथ्वी पर
</poem>