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20:36, 12 जून 2010 {{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= ग़ज़ल / विजय वाते
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
पीर जब बेहिसाब होती है
शायरी लाजवाब होती है
इक न इक दिन तो ऐसा आता है
शक्ल हर बेनकाब होती है
चांदनी जिसको हम समझते हैं
गर्मी-ए-आफ़ताब होती है
बे मज़ा हैं सभी क़ुतुब खाने
शायरी खुद किताब होती है
शायरी तो करम है मालिक का
शायरी खुद किताब होती है
</poem>