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वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मत-ए-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते
जश्न-ए-मकतल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते गाते-गाते जाते
उसकी वो जाने , उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते
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