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07:03, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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<poem>
'''केंचुआ'''
केंचुआ पैदाइशी अंधा नहीं होता
वह भीरु होता है,
कुछ बेहतर कर गुजरने की चाह में
सिर टकरा-टकराकर
अपनी आँखें फोड़ देता है
केंचुआ भ्रष्टाचार नहीं करता
वह विष, कार्बन, रेत-रेह
सब निगलकर
जन्म देता है--
एक उपजाऊ व्यवस्था का
क्या सचमुच केंचुआ बनने का
दमखम है हममें,
नि:संदेह केंचुआ बनने के लिए