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09:05, 5 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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<poem>
''' महका है मन '''
कस्तूरी सपनों से रिसकर
महका है मन का ये चन्दन वन
क्षितिजीय कारा से भागकर
भोर यहां लाई है अपनापन
मौत अभी रोएगी उम्रभर
तुम जो चली आई ले जीवन-धन
प्यास इधर भटकेगी डांय-डांय
तुम जो बरस आई हो अमृत बन
अक्षय व्यंजनों से भर दिया
भूखा-प्यासा पड़ा था जो बर्तन