भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महका है मन (गीत) / मनोज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
महका है मन
कस्तूरी सपनों से रिसकर
महका है मन का ये चन्दन वन
क्षितिजीय कारा से भागकर
भोर यहां लाई है अपनापन
मौत अभी रोएगी उम्रभर
तुम जो चली आई ले जीवन-धन
प्यास इधर भटकेगी डांय-डांय
तुम जो बरस आई हो अमृत बन
अक्षय व्यंजनों से भर दिया
भूखा-प्यासा पड़ा था जो बर्तन