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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
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<poem>

एक शीतोष्‍ण हंसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्‍दों में

ढूंढना खुद को
खुद की परछाई में
एक न लिए गए चुम्‍बन में
अपराध की तरह ढूंढना

चुपचाप गुजरो इधर से
यहां आंखों में मोटा काजल
और बेंदी पहनी सधवाएं
धो रही हैं
रेत से अपने गाढ़े चिपचिपे केश
वर्षा की प्रतीक्षा में
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