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खुद को ढूँढना / वीरेन डंगवाल
Kavita Kosh से
एक शीतोष्ण हंसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्दों में
ढूंढना खुद को
खुद की परछाई में
एक न लिए गए चुम्बन में
अपराध की तरह ढूंढना
चुपचाप गुजरो इधर से
यहां आंखों में मोटा काजल
और बेंदी पहनी सधवाएं
धो रही हैं
रेत से अपने गाढ़े चिपचिपे केश
वर्षा की प्रतीक्षा में
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