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तुम बंदी हो अहंकार के तुम ईश्वर कैसे पाओगे ?
तुमने कितनी कलियाँ नोची कितने फूल मसल कर रोंदे .
तुम भंवरे से भटक रहे हो तुम खुश्बू कैसे पाओगे ?
दाने प्रलोभनों के फेंके मधुर शब्द के जाल बिछाए
तन के आकर्षण में उलझे तुम मन को कैसे पाओगे ?
मन का पंछी ढूंढा करता सत्यनिष्ठ विश्वास भरा मन
तुम शैवाल नदी तट के हो एक लहर में बह जाओगे .
रास रचाने को तो तत्पर पर क्या प्रीती निभा पाओगे ?
भोग- स्वार्थ के वशीभूत हो क्या खा योगी बन पाओगे ?

'''लेखन काल: 5-4-09'''
</poem>