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ज़माँ मकाँ थे मेरे सामने बिखरते हुए / मनचंदा बानी
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07:09, 21 सितम्बर 2010
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<poem>
ज़माँ मकाँ
<ref>समय और अंतरिक्ष</ref
थे मेरे सामने बिखरते हुए ।
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र<ref>लम्बा सफ़र</ref> से डरते हुए ।
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<ref></ref>
अनिल जनविजय
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