{{KKCatGhazal}}
<Poem>
अजनबी खौफ़ फ़िजाओं ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे,शहर का शहर ही आसेबजदा आसेबज़दा हो जैसे,
रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी,
दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी
आज हर घर से जनाज़ा -सा उठा हो जैसे
मुस्कुराता हूँ पा-ए-खातिरख़ातिर-ए-अहबाब- मगरदुःख तो चहरे चेहरे की लकीरों पे सजा हो जैसे
अब अगर दूब डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे
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