भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे / अहमद कमाल 'परवाज़ी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे,
शहर का शहर ही आसेबज़दा हो जैसे,

रात के पिछले पहर आती हैं आवाज़ें-सी,
दूर सहरा में कोई चीख़ रहा हो जैसे,

दर-ओ-दीवार पे छाई है उदासी ऐसी
आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे

मुस्कुराता हूँ पा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब- मगर
दुःख तो चेहरे की लकीरों पे सजा हो जैसे

अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे