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अजनबी ख़ौफ़ फ़िज़ाओं में बसा हो जैसे / अहमद कमाल 'परवाज़ी'
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01:10, 19 नवम्बर 2010
आज हर घर से जनाज़ा-सा उठा हो जैसे
मुस्कुराता हूँ पा-ए-
ख़ा
तिर
ख़ातिर
-ए-अहबाब- मगरदुःख तो
चे
हरे
चेहरे
की लकीरों पे सजा हो जैसे
अब अगर डूब गया भी तो मरूँगा न 'कमाल'
बहते पानी पे मेरा नाम लिखा हो जैसे
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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