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रात की बात / रमानाथ अवस्थी

24 bytes added, 16:00, 21 नवम्बर 2010
|रचनाकार=रमानाथ अवस्थी
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रात की बात, रात को होगी
दिन भर की आपाधापी से
मन का दर्पण धुंधलाया है।धुँधलाया है ।
जिसने जितना दिया यहाँ पर
उसने उतना ही पाया है।है ।
सबकुछ पा लेने की धुन में
सबके सब दिखते हैं रोगी। रोगी ।
सत्य एक होता है उसको
पाने वाले कम ही होते।होते ।
एक समय आता है जब हम
बिना चाह के सबकुछ सब कुछ खोते
ऐसे दुख में कभी न फँसता
केवल एक अकेला योगी।योगी ।
वैसे तो दुख तरह -तरह के
पर दौलत का दुख अजीब है
जो केवल पैसे पर मरता
वही यहाँ सबसे गरीब ग़रीब है
ऐसे दुख का अर्थ जानता
दुनिया में बस केवल भोगी।भोगी ।
</poem>
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