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13:52, 22 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम. जमाल
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<poem>
या खुद को अर्पित कर दोगे
या फिर परिवर्तित कर दोगे
लोग अगर खामोश पड़े हैं
तुम भी कुछ घोषित कर दोगे
सभी जानते हैं सच्चाई
फिर भी सम्मोहित कर दोगे
आँख उठाए जो भी उसकी
आजादी सीमित कर दोगे
इतनी मेहनत लोगों पर क्या
मुर्दों को जीवित कर दोगे
खुद को भी पीड़ित कर दोगे
आखिर कब अर्पित कर दोगे
इतना प्रेम लुटाते हो क्या
मुझको भी सीमित कर दोगे
इतने आश्वासन देते हो
कब तक मेरा हित कर दोगे
एक लहू पर सौ निविदाएं
किसको आवंटित कर दोगे
भूक, गरीबी, शोषण, पीड़ा
सबको कैसे चित्त कर दोगे
इच्छा शक्ति बढ़ा कर देखो
जग को सम्मोहित कर दोगे
संविधान तो मजबूरी है
कितना संशोधित कर दोगे
मुझको भी है प्यार देश से
माथे पर अंकित कर दोगे</poem>