औचक ही आइ बाल नैनन निहारि लाल
बैठि गई तेही काल आपकौ छिपाइ के।
चंचल चितौन चुभै हरि रसलीन (करि),
गौन करि करै केलि भौन मुरझाइ के।
ताहि छन पीह पास आड़ आड़ सखियन,
आवन बताके यों रही है छबि छाइ के।
बधिक ज्यों चोट कै दुरति फिरै ओट ओट,
मृग लोट पोट भए खोजहि लुटाइ के॥28॥