वे डूब गए--सब डूब गए
दुर्दम, उदग्रशिर अद्रि-शिखर!
स्वप्नस्थ हुए स्वर्णातप में
लो, स्वर्ण-स्वर्ण अब सब भूधर!
पल में कोमल पड़, पिघल उठे
सुन्दर बन, जड़, निर्मम प्रस्तर,
सब मन्त्र-मुग्ध हो, जड़ित हुए,
लहरों-से चित्रित लहरों पर!
मानव जग में गिरि-कारा-सी
गत-युग की संस्कृतियाँ दुर्धर
बंदी की हैं मानवता को
रच देश-जाति की भित्ति अमर।
ये डूबेंगी-सब डूबेंगी
पा नव मानवता का विकास,
हँस देगा स्वर्णिम वज्र-लौह
छू मानव-आत्मा का प्रकाश!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३६