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वो बस्तियाँ वो बाम वो दर कितनी दूर हैं / 'महताब' हैदर नक़वी

वो बस्तियाँ वो बाम वो दर कितनी दूर हैं
महताब तेरे चाँद-नगर कितनी दूर है

वो ख़्वाब जो ग़ुबार-ए-गुमाँ में नज़र आए
वो ख़्वाब तुझ से दीदा-ए-तर कितनी दूर हैं

बाम-ए-ख़याल-ए-यार से उतरे तो ये खुला
हम से हमारे शाम ओ सहर कितनी दूर हैं

ऐ आसमान इन को जहाँ होना चाहिए
उस ख़ाक से ये ख़ाक-बसर कितनी दूर हैं

बैठे बिठाए दिल के सफर पर चले तो आए
लेकिन वो मेहर-बान-ए-सफ़र कितनी दूर है

ये भी ग़ज़ल तमाम हुई शाम हो चुकी
अफ़सून-ए-शाएरी के हुनर कितनी दूर हैं