शंकर -स्तवन-9
( छंद 165, 166)
(165)
देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं,
नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं ।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूके कछुक,
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हैां।।
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै,
ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि,
कालकाला कासीनाथ कहें निबरत हौ।।
(166)
चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो,
हर! पइ तर आइ रह्यों सुरसरितीर हौं।
बामदेव! रामको सुभाय -सील जानियत,
नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं।
अधिभूत बेदन बिषम होत,भूतनाथ ,
तुलसी बिकल, पाहि! पचत कुपीर हौं।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल,
ज्याइये तौ कृपा करि निरूजसरीर हौं।।