भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शंकर -स्तवन / तुलसीदास/ पृष्ठ 10

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


शंकर -स्तवन-10

 ( छंद 167, 168)

(167)

जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मेाहि,
मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।

कामरिपु! श्रामके गुलामनिको कामतरू!
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।

रोग भयो भूत-सेा, कुसूत भयो तुलसीको,
भूतनाथद्व पाहि! पदपंकज गहतु हौं ।

ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ
 मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं।।

(168)

भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
 आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।

नाना बेष, बाहन, बिभूषन , बसन,बास,
खान-पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये।।

 रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब,
सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।

तुलसीकी सुधरैं सुधारें भूतनाथहीके,
मेरे माय बाप गुरू संकर-भवानिये।।