काँप उठा अंग-अंग
शीत ने छुआ!
भोर से मिली नहीं है
धूप की गली
भटकन ही साथ रही
साँझ भी ढली
चुटकी भर मोहमन्त्र
भरकन के द्वार
दिवस भी उड़ा गया
पंख को पसार
पूछो मत मीत
हमें
और क्या हुआ
कम्बल की परतों में
खोजते रहे
मिली मात्र गन्ध
नीर नयन से बहे
मौन धरा अधरों ने
धड़कन ने षोर
नाच गया भुनसारे
द्वारे पर मोर
राम राम पिंजरे से
बोलता सुआ।
सपनों के ओस बिन्दु
चाटती किरण
जाने किस देस गए
प्यार के हिरन
बाँच रही अँगनाई
स्वास्तिक के रेख
मुँह फेरा सूरज ने
पियराई देख
डरपाए बैठे हैं
साँस के पखेरुआ।