शुद्ध सच्चिदानन्द परात्पर परब्रह्मा परमेश्वर-रूप।
सर्वातीत-सर्वमय, निर्गुण-सगुण, व्यक्त-अव्यक्त अनूप॥
नित्य अजन्मा, दिव्य जन्मधर, नित्य स्वतन्त्र, बने परतन्त्र।
सब के स्वयं एक यन्त्री नित, बना प्रेमियोंको निज यन्त्र॥
सहज विरोधी-गुणधर्माश्रय, करते लीला विविध विचित्र।
करते प्रेम-धर्म का पालन-संरक्षण बनकर अरि-मित्र॥
रौद्र, वीर, वीभत्स, भयानक, करुण, हास्य, अद्भुत श्रृंगार।
शान्त और अन्यान्य रसों के बनकर स्वयं रूप साकार॥
प्रकट हुए, वसुदेव-देवकी-सुत हो खल के कारागार।
नन्द-यशोदा को सुख देने किया शिशुत्व सुखद स्वीकार॥
ग्वाल-बालकों के सँग वन-वन किया समुद स्वछन्द विहार।
मधुर दिव्य रस गोपीजन का किया सभी विधि अंगीकार॥
सहज कृपावश किया कंस का मथुरा में जाकर संहार।
सादर किया पिता-माता का बन्धन से तुरंत उद्धार॥
नन्द आदि को लौटाया फिर, कर उनका समुचित सत्कार।
भेजा गोप-गोपियों के प्रति अपना परम मधुरतम प्यार॥
सुन कृष्ण की करुण प्रार्थना, वसन-रूप बन राखी लाज।
थक बैठा दुःशासन लज्जित, चकित रह गया सभी समाज॥
मथुरा-द्वारवती में प्रभु ने बरसाया आनन्द अपार-
मधुर परम ऐश्वर्यमयी शुचि लीलाओं का कर विस्तार॥
रणक्षेत्र में सखा पार्थ का मोह मिटाया, दे निज ज्ञान।
सहज शरण दे, किया धन्य फिर देकर दिव्य प्रेम का दान॥
अर्जुन के मिस अखिल विश्व को दिया दिव्य पावन उपदेश।
उद्धव को फिर दिया विशद कल्याणपूर्ण अपना संदेश॥
ज्ञान, योग, वैराग्य, प्रेम, रति, सकल कामनारहित सुकर्म।
संयम, त्याग, संन्यास, वर्ण-आश्रम, शुचि मानव के सब धर्म॥
इह-परलोक, पिता-सुत, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, धर्म-आचार।
गो-ब्राह्माण, अबला-अनाथ हित प्राणार्पण, मंगल व्यापार॥
सभी दिशाओं में नित देता जन-जन को उज्ज्वलतम ज्ञान।
हरता दुःख-शोक-भय-तम सब, करता सुख-कल्याण-विधान॥
पात्रापात्र-भेद कर विस्मृत, करता सदा सभी का त्राण।
सभी देश, सब काल सभी का करता सदा परम कल्याण॥