Last modified on 17 जनवरी 2014, at 10:09

श्रीमती मूरति अंकित करती। / हनुमानप्रसाद पोद्दार

मधुर तूलिका कोमल करमें ले नाना रँग भरती॥
विविध भाँति अति मधुर मनोहर रूप बनाती जाती।
तन्मय मन, दृग-दृष्टि-‌अचचल, उमँग न हृदय समाती॥
नव-नीरद-शुचि-नील-श्याम तनु उज्ज्वल आभा आँकी।
भाल विशाल तिलक मृग-मदके, भ्रुकुटि मनोहर बाँकी॥
सरस नयन शोभाके आकर मोहन आँजे अजन।
अतिशय चपल, चोर मन-धनके, सुर-‌ऋषि-मुनि मन रजन॥
मुख मुसकान, नासिका नीकी,कानन कुण्डल झलकैं।
केश कृष्णघन घूँघरवारे, इत-‌उत बिथुरीं अलकैं॥
मणिमय मुकुट मयूर-पिच्छ-युत सुन्दर सिर पै साजै।
कबुकण्ठ बनमाल विराजै रत्न-हार उर राजै॥
पीत वसन दमकत दामिनि-सो कटि किंकिणी अति सोहै।
निरखि-निरखि निज अंकित मूरति भामिनि निज मन मोहै॥
ल‌ई तूलिका खींचि अचानक भ‌ई सशंकित भारी।
चरण उभय आँके नहिं पियके, गहरी बात विचारी॥
भाजि जायँ जीवनधन पाछें जो चरणनके पाये।
तो फिर कहा बनैगो मेरो, यही सोच उर छाये॥
ठाढ़े निरखि रहे मनमोहन प्रीति-रीति अति पावन।
प्रकट भये, बिहँसे, पुलकित तनु भ‌ई, देखि मनभावन॥