संगति के नाम पर
सौ-सौ असंगतियाँ सगी
आग जंगल में नहीं, घर में नहीं,
ख़ुद में लगी !
ख़ुद यही
जो भस्म होता भी नहीं
करता नहीं,
जी नहीं सकता
जिजीविष इस कदर / मरता नहीं
यातना से भी बड़ा
जो बोध इसका झेलता
उबलता-जलता लहू पर आग से ही खेलता,
और यह
जो हड्डियों में
मांस-मज्जा सँग रचा,
डूबकर सौ-सौ प्रलय
सौ बार दावानल पचा
धमनियों में सुलगता
ख़ुद्दारियत के वास्ते
सह रहा
बलग़म गिराते हर किसी को खाँसते,
चाहता अब
कुछ करे
पर क्या करे ख़ुद से ठगी ?
30-8-1976