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सबके दिल में... / मुकेश निर्विकार

सबके दिल में होती है—
जज़्बातों की बालकनी,
सबके दिल में उड़ती हैं—
स्वप्नलोक की सोनपरी,


सबके दिल में होते हैं—
पीड़ाओं के झंझावात
सबके दिल में होते हैं—
आघातों पर आघात,

सबके दिल में उठती हैं—
चीर-बिछोह की हूक एक,
सबके दिल में बैठा है—
थका बटोही मूक एक,

सबके दिल में होते हैं—
गड्ढे-गहन-गुहा-गहवर,
सबके दिल में होते है—
नन्दन-कानन, झर-झर-निर्झर,

सबके दिल में होती है—
संतापों की आग एक,
सबके दिल में होती है,
चाहत-दर-चाहत लाग एक,

सबके दिल में बैठा है—
भूतकार इतिहास एक,
सबके दिल में होता है—
वर्तमान उपहास एक,

सबके दिल में होती है—
मर्यादा की लक्ष्मण-रेखा,
सबके दिल में बैठे रावण—
नित करते इसको अनदेखा,

सबके दिल में होती हिय—
हारों की तीखी पीड़ा,
सबके दिल में छिड़ता है—
अभियानों का नित् नव बीड़ा,

सबके दिल में होते हैं—
सही गलत के न्यायलय,
सबके दिल में होते हैं—
पाप-पुण्य के देवालय,

सबके दिल में होती है—
जीवन की गहरी चाह एक,
सबके दिल से उठती है—
आसन्न मौत पर आह-एक।