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सान्ध्य गीत / यतींद्रनाथ राही

बैठो तनिक
पास तो आओ
कुछ बोलें बतियाएँ
क्षितिज हुए सिन्दूरी देखो
सान्ध्य-गीत हम गाएँ।

बीत गए दिन
आपाधापी कुछ सन्नाटे ढोते
ऊसर-बंजर-मरुथल हारे
व्यर्थ पसीना बोते
भूख समेटी
प्यास बटोरी
भरम-जाल में उलझे
सूखे, ताल-पोखरे-नदिया
कमल झील के मुरझे
एैसा तो कुछ करें रामजी
मेघ गगन-घिर छाएँ।

समय बुरा
बीमार सियासत
गिरा आदमी नीचे
यह अधर्म-अन्याय कहाँ तक
देखें आँखें मीचे
रोज़ बदलते हुए मुखौटे
चोले-डन्डे-झन्डे
कुर्सी के हित ही होते हैं
भले-बुरे हथकन्डे
एक शाम ही सही
इन्ही के हित
अर्पित कर जाएँ।

सौ-सो नखत
गगन के आँगन
भर न सके उजियारा
नन्हे खद्योतों ने बाहर
हाँक दिया अँधियारा
चलो!
चाँदनी से निचोड़लें
हम अमृत की बूँदे
धरती के सपने सरसित हों
जब हम आँखें मूँदें
आखर अमर
प्रीति के पनघट
ज्योति कलश छलकाएँ।