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सिरताजी अइया / रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

निक निक मनई चला गए संउकेरवइं
जिया थें मउतिया जीति के अपराधी
मरि त गइन सिरतजिया चमाइन
गउंवा के नतवा लगइं जी मोरी आजी
मचिया बैठि मोरी घटिया बिठावइं
कुथरू फोरइं जी मोरे बरदा की माछी
चढ़ि ग धियनवा बिकल होइगा जियरा
दुनिया थहावइं मोरी अंखिया पियासी
रतिया भ मइया तकावइं अन्हियरवा
दिनवा भ जोगवइं खैरवा अ पनवा
हमरी पुतरिया अंकुरि आये अंकुआ
कटि के रकत मोर होइ ग भंहुववां
काउ कही मितवा खुनाइ गई अखिया
दोखही नजर बैगुनवइ सुझाये हो
चलती डगरिया जे हंसि के तकाये होये
मुड़वउ काटे न ओकइ सुधिया भुलाये हो !

हिन्दी में भावार्थ : उपरोक्त रचना में कवि विद्रोही श्रद्धा विभोर होकर अपनी ‘सिरताजी अइया’ को याद कर रहे हैं , उनकी नेकी को याद कर रहे हैं . कवि को दुःख है कि अच्छे (नीक) लोग जल्दी से दिवंगत हो जाते हैं और अपराधी लोग मृत्यु को जीत कर जिया करते हैं . नेक सिरताजी चमाइन का जाना ऐसा ही है जो गाँव के नात से अइया लगती हैं जिन्होंने बचपन में मचिया पर बैठकर/बैठाकर मेरी घाटी बिठाई और बैल के ऊपर बैठने वाली मक्खी से मेरे आँखों की कुथरू को ठीक किया . कुथरू फोरने को थोड़ा विस्तार देना समीचीन होगा . आँखों में पलकों में भीतर की ओर दर्द देने वाला दाना हो जाता है जिसे कुथरू कहते हैं , कहीं कहीं इसे ‘रोड़ा’ भी कहते हैं , इसमें बड़ी पीड़ा होती है . इसके इलाज के लिए सिरताजी अइया बैलों पर बैठने वाली मक्खी के नुकीले पैर से उस दाने को स्पर्श कराती थीं और खून निकलने के साथ वह दाना फूट जाता था . सिरताजी अइया की याद के साथ ये सारी बातें याद आ रही हैं . इन बातों का ध्यान होने पर विद्रोही-चित्त विकल को जाता है . ये आँखें पूरी दुनिया की थाह लेने लगती हैं . बहुत सी चीजें याद आती हैं , कुथरू-अवधि में महतारी द्वारा अँधेरे के ओर दृष्टि रखवाना , दिनभर खैर और पान की व्यवस्था , फिर पुतली के मध्य से दृष्टि-रूप अंकुर का उदय , भौं-स्थान का रक्तिम होना ! अंततः व्याज-कथन के रूप में कवि वाणी है – “क्या कहा जाय मित्र , याद करते हुए ये दोषी अवगुणी आखें फिर खुना आयी हैं , उत्साह बढ़ाते हुए कोई जीवन-राह दिखाया हो तो सर काट लिए जाने पर भी उसकी सुधि ( याद ) नहीं बिसरती/बिसरेगी !”