(राग हंसध्वनि-तीन ताल)
सीताका कर हरण दुष्टस्न् रावण जब लङङ्कामें लाया।
दिये प्रलोभन अमित, विविध विधिसे ड्डुञ्सलाया समझाया॥
क्रञेधातुर हो सती जानकीने जब उसको फटकारा।
रखकर सीताको अशोक-वन, लौट गया वह मन-मारा॥
जगज्जननि जानकिको जब सुरपतिने देखा दुःख-अधीर।
अति दुःखित हो, चरु लेकर जब आये, शुचि शचिपति सुर-वीर॥
आश्वासन दे, कहा-’जननि ! रावणका कर सवंश संहार।
विजयी हो रघुवर, तुमको ले जायेंगे निज संग उदार॥
कुञ्छ दिन धीरज धरो, करो अनुचरकी यह सेवा स्वीकार।
दिव्य देव-हवि-अन्न ग्रहणकर क्षुधा-तृषासे पावो पार॥
भूख-प्यासकी बाधा मैया ! कभी न होगी तुमको अब।
सीताने सुरपतिको जब पहचाना, लिया दिव्य चरु तब॥
माताकी शुभ आशिष पाकर सुखसे लौट गये सुरराज।
धन्य वही, जिसका तन-मन-धन लगता सदा रामकेञ् काज॥