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सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 7

वह पुलकनि वह उठ मिलनिए वह आदर की भाँति ।
यह पठवनि गोपाल कीए कछू ना जानी जाति ।।61।।

घर. घर कर ओड़त फिरेए तनक दही के काज ।
कहा भयौ जो अब भयौए हरि को राज.समाज ।।62।।

हौं कब इत आवत हुतौए वाही पठ्यौ ठेलि ।
कहिहौं धनि सौं जाइकैए अब धन धरौ सकेलि ।।63।।

बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं सराप ।
जैसी हरि हमको दियौ, तैसों पइहैं आप ।।64।।

नौगुन धारी छगुन सों, तिगुने मध्ये में आप ।
लायो चापल चौगुनी, आठौं गुननि गँवाय ।।65।।

और कहा कहिए दसा, कंचन ही के धाम ।
निपट कठिन हरि को हियों, मोको दियो न दाम ।।66।।

बहु भंडार रतनन भरे, कौन करे अब रोष ।
लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस ।।67।।

इमि सोचत सोचत झींखत, आयो निज पुर तीर ।
दीठि परी इक बार ही, अय गयन्द की भीर ।।68।।

हरि दरसन से दूरि दुख भयो, गये निज देस ।
गौतम ऋषि को नाउॅ लै, कीन्हो नगर प्रवेस ।।69।।

भाग-2 समाप्त