Last modified on 29 जून 2014, at 14:23

सुरक्षित लौट आना / लक्ष्मीकान्त मुकुल

केले के टुकड़े-टुकड़े पत्तों के बीच
छिप जाता था मेरा उदास घर
पहाड़ों के पार से चली आती बंसी की धुन
मांड़ के टभकते भात-गंध में
झूमने लगता था समूचा कुनबा
कम नहीं होता समय की
अंध्ड़ों में सब कुछ सहन कर पाना
सहम कर मौन साध लेना
रात गहराते हुए आंगन में
जूठने पड़े बर्तनों का हवाओं से खड़खड़ाना
और लुढ़कते हुए पसर जाना ओसारे में
कितना मुश्किल होता है सुरक्षित
लौट आना यात्राओं से
आदिम पुनर्जागरण की इन क्रूर घड़ियों में भी।