मैंने दीवार को छुआ-- वह दीवार ही रही। मौक़ा
देखकर हिफ़ाज़त करती या रुकावट बनती।
मैंने पेड़ को छुआ-- वह पेड़ ही रहा। एक दिन
ठूँठ बन जाने की प्रक्रिया में हरा-भरा लहलहाता।
मैंने आकाश को देखा-- वह आकाश ही रहा। एक
समझ में न आने वाला पहेली विस्तार।
मैंने समंदर को देखा-- वह समंदर ही रहा। पहली ही
नज़र में आने और डूब जाने का निमंत्रण देता।
मैंने तुम्हें देखा और छुआ-- और तुमने मुझे
और सृष्टि का पहला क्षण
दुबारा आकार लेने लगा
हमें कुछ और ही ज़्यादा
'मैं' और 'तुम' बनाता हुआ।
रचनाकाल : 12 मई 1975