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स्त्री होने का संकट / सविता सिंह

किस दौर में आ गई हूँ

पीले से लाल हो रहे मेपल के पत्ते की तरह आश्वस्त

समझती सुन्दर किसी इन्तज़ार को भीतर ही भीतर

समझती सारी इच्छाओं आकांक्षाओं की महीन बुनावट को

उसके हर ढंग को पहचानती

चुनने के लिए कोई एक नहीं मगर बाध्य

फैसला किए हुए

अब न जीतने की कोई इच्छा है

न हारने का भय

बस ख़ुद को पाने की उत्कंठा है


यह सब कर लेने का संकट ही मगर

स्त्री होने का संकट है

जो हर सपने का हो गया है