हम परावलम्बी हैं
बौने हैं
कैसे ऊँचाइयाँ चढ़ें !
केयरऑफ़
दिनचर्या जीवन की
अपना घर - घोंसला नहीं
अनासक्ति - उद्घोषण
छल होगा
छल का ही हौसला नहीं,
हम पुराणपन्थी हैं
पोंगे हैं
कैसे सिर क्रान्तियाँ मढ़ें !
पदारूढ़
उत्कोची अनुशंसा
अपनी हर चाह सिरफिरी
निजताएँ अभिशापित
लगती हैं
आशीषें गालियाँ निरी,
हम विलोम सुख के हैं
दुख के हैं
कैसे ख़ुशफ़हमियाँ गढ़ें !
–
21 नवम्बर 1975