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हरि सम हरि ही / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(राग पीलू-तीन ताल)

हरि सम हरि ही हितू हमारौ।
आश्रय एक दीन-पतितन कौ, सहज सहाय, सहारौ॥
 अवगुन-दोष गिनत नहिं एकहु सरनागत के भारी।
 निज अवलंबन देय, मिटावत जन की पीड़ा सारी॥
 अभय करत निज दया-दान दै, भय-विषाद हर सारे।
 पठवत अंत दिव्य निज धामहिं, निज सुभाव सौं हारे॥