हार हुई तो
प्रश्नों के सम्बोधन
उग आए
पराजित उत्तर बिसुराए !
दाएँ - बाएँ हाथ हो गए
आएँ - बाएँ पैर
कुछ ऐसे दिन लगे
कि अपने / अपने रहे न गैर,
यों टूटा आकाश
धरा के आँसू ढुर आए !
शंका - शंका बेंत हो गई
नंगी - नंगी पीठ
कुछ ऐसा बुन लिया
कथानक / पात्र हुए सब ढीठ ,
यों बैठा खग्रास
त्रास के परचम फहराए !
05 फ़रवरी 1975