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हिंडोरें झूलत स्यामा-स्याम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

हिंडोरें झूलत स्यामा-स्याम।
नव नट-नागर, नवल नागरी, सुंदर सुषमा-धाम॥
सावन मास घटा घन छा‌ई, रिमझिम बरसत मेह।
दामिनि दमकत,चमकत गोरी, बढ़त नित्य नव नेह॥
कल्पद्रुम-तल सीतल छाया रतन-हिंडोरा सोहै।
झूलत प्रीतम-प्रिया ताहि पर, चिा परस्पर मोहै॥
नील-हेम तनु पीत-नील पट सोहत सरस सृङङ्गार।
चंचल मुकुट, सुचारु चंद्रिका, गल मुक्तामनि-हार॥
सखि ललितादिक देत झकोरे, मिलत अंग-प्रति-‌अंग।
गावत मेघ-मलार मधुर सुर, बाजत ढोल-मृदंग॥
हँसत-हँसावत रस बरसावत सखी-सहचरी-बृंद।
उमग्यौ आनँद-सिन्धु, मगन भ‌ए दो‌ऊ आनँद-कंद॥