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हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता / फ़राज़

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हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता

वो तो दुनिया को मेरी दीवानगी ख़ुश आ गई
तेरे हाथों में वरना पहला पत्थर देखता

आँख में आँसू जड़े थे पर सदा तुझ को न दी
इस तवक़्क़ो पर कि शायद तू पलट कर देखता

मेरी क़िस्मत की लकीरें मेरे हाथों में न थीं
तेरे माथे पर कोई मेरा मुक़द्दर देखता

ज़िन्दगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह
किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता

डूबने वाला था और साहिल पे चेहरों का हुजूम
पल की मोहलत थी मैं किस को आँख भर के देखता

तू भी दिल को इक लहू की बूँद समझा है "फ़राज़"
आँख गर होती तो क़तरे में समन्दर देखता