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जल उठूँ मैं / केदारनाथ अग्रवाल

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जल उठूँ मैं जल उठूँ ऐसा कहाँ वरदान पाऊँ?
प्रेम है इतना हृदय में
नेह का नीरज रचाऊँ
देह की दीपक शिखा को
युग युगांतर तक जलाऊँ
युग्म-संकोची कुचों के बीच-
बस सुख-स्पर्श पाऊँ
तुम मुझे चूमो बराबर, मैं
नहीं फिर भी अघाऊँ
सिर घुनूँ तब, पूर्ण मद-मूँदे
दृगों में पैठ जाऊँ
जल उठूँ मैं जल उठूँ ऐसा कहाँ वरदान पाऊँ?