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ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं / श्रद्धा जैन
Kavita Kosh से
समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं
फ़साद करना है जिनका पेशा
उन्हीं को फिकरें जहान की हैं
खुलूस, नेकी, वफ़ा, भलाई
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें बस खुशगुमान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
क़तर के पर, वो कहे है 'श्रद्धा'
खुली हदें आसमान की हैं