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काला डूंगर / गोरधनसिंह शेखावत
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मैं कब
काले डूंगर के सामने
आकर खड़ा हो गया
मालूम ही नहीं
यह डूंगर
एकदम नंगा
न ही यहां वृक्ष
न ही हरियाली
मैं
मुड़ मुड़ कर पीछे देखता हूं
उगता-छिपता सूरज
चांदनी का महकना
घूप का चिलकना
इस काले
और ऊंचे डूंगर को
देखकर डर लगता है
यहां न तो चांद सूरज हैं
न ही वर्षा
न ही नदी-नाले
इसकी जड़ों में
खड़े हैं बहुत लिग
हारे-थके
धर मजलां धर कूचां चलते हुए
मुझे लगता है
जैसे कहता है बड़ा डूंगर
तुम्हारे इस मुकाम पर
धैर्य से पैर थमाना
तुम्हारी यात्रा का
यह आखिरी मुकाम है ।
अनुवाद : नीरज दइया