भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काला डूंगर / गोरधनसिंह शेखावत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कब
काले डूंगर के सामने
आकर खड़ा हो गया
मालूम ही नहीं

यह डूंगर
एकदम नंगा
न ही यहां वृक्ष
न ही हरियाली
मैं
मुड़ मुड़ कर पीछे देखता हूं
उगता-छिपता सूरज
चांदनी का महकना
घूप का चिलकना

इस काले
और ऊंचे डूंगर को
देखकर डर लगता है
यहां न तो चांद सूरज हैं
न ही वर्षा
न ही नदी-नाले
इसकी जड़ों में
खड़े हैं बहुत लोग
हारे-थके
धर मजलां धर कूचां चलते हुए

मुझे लगता है
जैसे कहता है बड़ा डूंगर
तुम्हारे इस मुकाम पर
धैर्य से पैर थमाना
तुम्हारी यात्रा का
यह आखिरी मुकाम है ।

अनुवाद : नीरज दइया