भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल-जंगल / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:46, 13 जून 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} जंगल जंगल आग लगी है<br> घिर...)
जंगल जंगल आग लगी है
घिरे बीच में हम ।
झुलस गया है रोयाँ रोयाँ
हुई न आँखें नम ।
रोते भी तो हम क्यों रोते
दर्द समझता कौन ।
कुछ हँसते ,कुछ नज़र चुराते
कुछ रह जाते मौन ।
आग लगाने वाली दुनिया
आग बुझाते कम ।
अच्छे का अंजाम बुरा है
जाने हम यह बात ।
करें बुरा हम बोलो कैसे
दिल कब देता साथ ।
आशीर्वाद करें क्या लेकर
शापित जनम जनम ।
रेगिस्तानों में निकल पड़े हम
प्यास बुझाने को ।
कपटी साथी आए दूर तक
राह बताने को ।
हमने हँस हँस झेले तीखे
चुभते तीर विषम ।