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यश मालवीय के गीत

कोई चिनगारी तो उछले

अपने भीतर आग भरो कुछ

जिस से यह मुद्रा तो बदले ।


इतने ऊँचे तापमान पर

शब्द ठुठुरते हैं तो कैसे,

शायद तुमने बाँध लिया है

ख़ुद को छायाओं के भय से,


इस स्याही पीते जंगल में

कोई चिनगारी तो उछले ।


तुम भूले संगीत स्वयं का

मिमियाते स्वर क्या कर पाते,

जिस सुरंग से गुजर रहे हो

उसमें चमगादड़ बतियाते,


ऐसी राम भैरवी छेड़ो

आ ही जायँ सबेरे उजले ।


तुमने चित्र उकेरे भी तो

सिर्फ़ लकीरें ही रह पायीं,

कोई अर्थ भला क्या देतीं

मन की बात नहीं कह पायीं,

रंग बिखेरो कोई रेखा

अर्थों से बच कर क्यों निकले ?


गाँव से घर निकलना है


कुछ न होगा तैश से

या सिर्फ़ तेवर से,

चल रही है, प्यास की

बातें समन्दर से ।


रोशनी के काफ़िले भी

भ्रम सिरजते हैं,

स्वर आगर ख़ामोश हो तो

और बजते हैं,


अब निकलना ही पड़ेगा,

गाँव से- घर से


एक सी शुभचिंतकों की

शक्ल लगती है,

रात सोती है

हमारी नींद जगती है,


जानिए तो सत्य

भीतर और बाहर से ।


जोहती है बाट आँखें

घाव बहता है,

हर कथानक आदमी की

बात कहता है,

किसलिए सिर भाटिए

दिन- रात पत्थर से ।


फूल हैं हम हाशियों के


चित्र हमने हैं उकेरे

आँधियों में भी दियों के,

हमें अनदेखा करो मत

फूल हैं हम हाशियों के ।


करो तो महसूस,

भीनी गंध है फैली हमारी,

हैं हमी में छुपे,

तुलसी – जायसी, मीरा – बिहारी,


हमें चेहरे छल न सकते

धर्म के या जातियों के ।


मंच का अस्तित्व हम से

हम भले नेपथ्य में हैं,

माथे की सलवटों सजते

ज़िंदगी के कथ्य में हैं,


धूप हैं मन की, हमीं हैं,

मेघ नीली बिजलियों के ।


सभ्यता के शिल्प में हैं

सरोकारों से सधे हैं,

कोख में कल की पलें हैं

डोर से सच की बँधे हैं,


इन्द्रधनु के रंग हैं,

हम रंग उड़ती तितलियों के ।


वर्णमाला में सजे हैं

क्षर न होंगे अग्नि-अक्षर,

एक हरियाली लिये हम

बोलते हैं मौन जल पर,


है सरोवर आँख में,

हम स्वप्न तिरती मछलियों के ।



ऐसी हवा चले


काश तुम्हारी टोपी उछले

ऐसी हवा चले,

धूल नहाएँ कपड़े उजले

ऐसी हवा चले ।


चाल हंस की क्या होगी

जब सब कुछ काला है,

अपने भीतर तुमने

काला कौवा पाला है,


कोई उस कौवे को कुचले

ऐसी हवा चले ।


सिंहासन बत्तीसी वाले

तेवर झूठे हैं,

नींद हुई चिथड़ा, आँखों से

सपने रुठे हैं,


सिंहासन- दुःशासन बदले

ऐसी हवा चले ।


राम भरोसे रह कर तुमने

यह क्या कर डाला,

शब्द उगाये सब के मुँह पर

लटका कर ताला,


चुप्पी भी शब्दों को उगले

ऐसी हवा चले ।


रोटी नहीं पेट में लेकिन

मुँह पर गाली है,

घर में सेंध लगाने की

आई दीवाली है,


रोटी मिले, रोशनी मचले

ऐसी हवा चले ।


उजियारे के कतरे



लोग कि अपने सिमटेपन में

बिखरे-बिखरे हैं,

राजमार्ग भी, पगडंडी से

ज्यादा संकरे हैं ।


हर उपसर्ग हाथ मलता है

प्रत्यय झूठे हैं,

पता नहीं हैं, औषधियों को

दर्द अनूठे हैं,


आँखें मलते हुए सबेरे

केवल अखरे हैं ।


पेड़ धुएं का लहराता है

अँधियारों जैसा,

है भविष्य भी बीते दिन के

गलियारों जैसा


आँखों निचुड़ रहे से

उजियारों के कतरे हैं ।


उन्हें उठाते

जो जग से उठ जाया करते हैं,

देख मज़ारों को हम

शीश झुकाया करते हैं,


सही बात कहने के सुख के

अपने ख़तरे हैं ।