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रोशनी की किरण / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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रोशनी की किरण
रोशनी की किरण देख पाये नहीं ,
जिन्दगी भर दिये हम जलाते रहे।
पंख लेकर कटे, उड़ न पाये कभी
बाजुओं केा उमर भर हिलाते रहे,
उठ चले , फिर गिरे, फिर खडे हो गये,
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।
भीतियों ने बसेरे लिये पा्रण में
पंव बढते हुये डगमगाते रहे,
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में
भावना के सुमन कसमसाते रहे,
रात होेती रही भोर होता रहा,
ओस के बिन्दु भी झिलमिलाते रहे।
देख जलते रहे दूसरों को सदा
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से
हर घडी द्वेष में हम नहाते रहे,
हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।