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विनयावली(प्रथम पद), / तुलसीदास

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विनयावली

(पद 276)

276

कहा न कियो, कहाँ ल गयो, सीस कहि न नायो?
 
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो।1।
 
आस -बिबस खास दाा ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।
 
हाहा करि दीनता कही द्वार -द्वार बार-बार, परी न छार, मुख बायो।2।
 
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।

महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो।

नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।

साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचाायो।4।

श्रवण-नयन-मृग मन लगे, सब थल पतितायो।

मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो।5।

दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।

तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरूदावली बुलायो।6।
 
277
श्राम राम राय! बिनु रावरे मेरे केा हितु साँचो?
 
स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो।1।

देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।

किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिचा काँचो।
 
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी बापु! टापु ही बाँचो।
 
हिये हेरि तुलसी लिखी, सेा सुभाय सही कहि बहुरि पूँछिये पाँचों।3।