भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहो तो अब भी / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:40, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन की चट्टानों से टकरा कर
सारी लहरों के टूट जाने का दृश्य है यह

चाहो तो इस अब भी प्रेम कह लो
चाहो तो रह लो अब भी मुग्ध

पर प्रेम तो गया
झरी फूल पत्ती की सुगंध की तरह

उसी सागर की बेछोर गहराई में
जिसमें लहरें बन कर थोड़ी ही देर पहले वह उपजा था

चाहो तो इसे अब भी प्रेम कह लो !