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सन्नाटा / वाज़दा ख़ान
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अभी-अभी चली गई धूप
घिर गई हैं घटाएँ
शायद बरस भी जाएँ
मगर निरन्तरता के क्रम में
अभी फिर निकल आएगी धूप
खिली-खिली मासूमियत से भरी
तब छेड़ोगे तुम शायद कोई राग
जो बना होगा हृदय के स्पन्दन से
मगर पथरा जाएँ जब संवेदनाएँ
हो जाता है सब कुछ बेमक़सद
बे आवाज़, रह जाता है इक सन्नाटा
सिफ़र को बुनता हुआ ।