भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नीम अँधेरे में / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:19, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |संग्रह=जिस तरह घुलती है काया / वाज़…)
सम्पूर्ण परिदृश्य में एक कथा
उजागर होती है कि तमाम
मानवीय संवेदनाएँ त्रासदी का
शोक मनाती एक दमघोंटू
उदास वातावरण में तब्दील
हो गई बिना कोई राग सुनाए, बिना
कोई गीत गाए
न चाहते हुए भी उन्हें पाँव रखना
पड़ता है बंजर ज़मीन पर
जहाँ धारदार चट्टानें अपनी
अपनी सोच के साथ गुँथी हुई हैं पगडँडियों में
नुकीली चट्टानों के बीच चलते जाते हैं पाँव
पीड़ा से विगलित
छलछलाते अश्रुओं के संग कि
यहीं सरज़मीन आई है पांवों
तले, शायद यही अंजाम होता है
उन मूक आँखों का, जिन्हें पढ़
नहीं पाते लोग
त्रासदियाँ निरन्तर उनके संग
चलती रहती हैं अपना वजूद लिए
निःशब्द / बेआवाज़
टूटती रहती हैं ख़्वाहिशें / बिखरती
रहती है देह कहीं
फिर भी धुन्ध के साथ नीम अँधेरे में
पलते रहते हैं सपने ।