ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम-धाम,
गरमी झुकी है जाम-जाम अति तापिनी ।
भीजे खस-बीजन झुलै हैं ना सुखात स्वेद,
गात न सुहात बात, दावा सी डरापिनी ॥
ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन तें, कूपन तें,
लै-लै जलधार, बार-बार मुख थापिनी ।
जब पियौ, तब पियौ, अब पियौ फेर अब,
पीवत हू पीवत बुझै न प्यास पापिनी ॥