ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
कि संग तुझपे गिरे और ज़ख़्म आये मुझे
वो महरबाँ है तोप इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे
मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाये मुझे
मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र न आये मुझे
वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे
मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ "क़तील"
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे